Saturday, 19 March 2016
तो क्या मंगल पर है जीवन ?-So what ‘s life on Tue ? in Hindi
मंगल ग्रह और पृथ्वी के बीच समानताओं से अधिक असमानताएँ हैं। वहाँ वैसा
कोई जीवन नहीं है, जिस तरह के जीवन के हम पृथ्वी पर आदी हैं। वैज्ञानिक
तबभी वे वहाँ मानवीय बस्तियाँ बसाने के अपने सपनों को छोड़ना नहीं चाहते।
जर्मनी में काटलेनबुर्ग-लिंदाऊ के सौरमंडल अन्वेषण संबंधी माक्स प्लांक संस्थान के प्रो. हाराल्ड श्टाइनिंगर भी ऐसे ही एक वैज्ञानिक हैं। वे एक ऐसे मिशन के मुख्य वैज्ञानिक हैं, जिस के अधीन मंगल ग्रह की जमीन को जाँचने-परखने के लिए वहाँ घूमफिर करमिट्टी के नमूने लेने वाले दो उपकरणों के साथ एक अन्वेषण यान भेजा जाना है। इस मिशन को ‘एक्सोमार्स’ नाम दिया गया है।
प्रो. श्टाइनिंगर का कहना है, ‘वहाँ हरे रंग के आदमियों के होने की उम्मीद वैसे भी कोई नहीं कर रहा है। बहुत हुआ, तो बैक्टीरिया जैसे सूक्ष्म जीवाणु मिल सकते हैं।’
2018 में प्रक्षेपण : पैसे की कमी के कारण एक्सोमार्स के प्रक्षेपण को कई बार टाला जा चुका है। इस समय उसे 2018 में भेजने की बात चल रही है। एक्सोमार्स अपने साथ विभिन्न उपकरणों से भरे दो रोवर यानी विचरण वाहन भी ले जाएगा- हुम्बोल्ट और पास्त्यौअर।
हाराल्ड श्टाइनिंगर की टीम जो उपकरण बना रही है, उसका नाम है- ‘मोमा’ मार्सन ऑर्गैनिक मॉलेक्यूल्स एनेलाइजर। यह एक गैस क्रोमैटोग्राफ मास स्पेक्ट्रोमीटर है, जो एक लेजर मास स्पेक्ट्रोमीटर से जुड़ा है। उसे मालूम करना होगा कि मंगल ग्रह की मिट्टीमें किस किस तरह के पदार्थ मिले हुए हैं।’
मोमा स्वयं भी एक इंजीनियरिंग चुनौती है। उस का आकार तीस लीटर पानी के लिए आवश्यक जगह से अधिक नहीं होना चाहिए।
वे कहते हैं, ‘मंगल ग्रह की परिक्रमा कर चुकेयानों से उसकी ऊपरी सतह के कुछ ऐसे भी चित्र मिले हैं, जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि सतह के चार-पाँच सेंटीमीटर नीचे हमें कितना पानी मिल सकता है। लेकिन, यह कहना बहुत मुश्किल है कि इस पानी तक पहुँचना कितना सरलया कठिन है और वह खारा है या नहीं। इसलिए हमारा उपकरण जमीन में छेद कर पानी खोजेगा।’
दो मीटर की गहराई तक खुदाई : मोमा नाम का यह उपकरण पहली बार दो मीटर की गहराई तक की मंगल ग्रह की जमीन के नमूने लेगा। वह जो कुछ करेगा, उसका उद्देश्य बाद में भी एक्सोमार्स जैसी उड़ानों की तैयारी करने में और एक दिन वहाँ मनुष्य को भेजने में सहायक होना है।
अलग-अलग कक्षाओं में रह कर सूर्य की परिक्रमा कर रहे मंगल और पृथ्वी के बीच की दूरी हमेशा घटती-बढ़ती रहती है। इस का परिणाम यह होगा कि जो भी अंतरिक्ष यात्री कभी वहाँ जाएँगे, पृथ्वी पर वापसी से पहले उन्हें एक साल तक वहाँ रहना पड़ सकता है। वे इतने लंबे समय तक के लिए अपनी जरूरत की सारी चीजें पृथ्वी पर से ले कर नहीं जा सकते। अतः वैज्ञानिकों को पता लगाना है कि ऐसे कौन से संसाधन मंगल ग्रह पर ही मिल जाएँगे, जिनसे अंतरिक्ष यात्रियों का काम चल सकता है। यह भी देखना होगा उन संसाधनों को कैसे पाया और इस्तेमाल करने लायक बनाया जा सकता है। इस बारे में काफी अनिश्चय है।

जैसा कि प्रो.श्टाइनिंगर बताते हैं, ‘ऐसी दो उड़ानें पहले भी हो चुकी हैं जिन्होंने मंगल ग्रह पर कार्बनिक सामग्री का पता लगाने का प्रयास किया है, लेकिन केवल 10 सेंटीमीटर की गहराई तक ही। उन्हें कुछ नहीं मिला। ऐसी सामग्रियों की भी निश्चित रूप से जरूरत पड़ेगी, जिन का रिहायशी निर्माण सामग्री के तौर पर उपयोग हो सके। हो सकता है कि वहाँ सुरंगे खोदनी पड़ें, घर बनाने के लिए वहाँ की मिट्टी को जला कर ईंटें बनानी पड़ें। लेकिन सबसे जरूरी होगा पानी, क्योंकि मंगल ग्रह पर जाने वाले अंतरिक्ष यात्रियों को साल भर में जितना पानी चाहिए, उतना पानी पृथ्वी पर से नहीं ले जाया जा सकता। ऑक्सीजन पाना भी आसान नहीं होगा। उसे पानी के विद्युत-विश्लेषण से पैदा करना पड़ेगा। ऑक्सीजन और पानी, इन दोनों की सबसे पहले जरूरत पड़ेगी।’
इस का मतलब है कि एक्सोमार्स को मंगल ग्रह पर मुख्य रूप से पानी ढूँढना है, जो शायद वहाँ की चट्टानी जमीन में छिपा हुआ है। हाराल्ड श्टाइनिंगर और उन के सहयोगियों को 2018 तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी, क्योंकि उससे पहले उनकी मशीन मंगल ग्रह पर नहीं पहुँचेगी। इस के बाद ही पता चल पाएगा कि मोमा मंगल ग्रह की परिस्थितियों में काम करने के कितना अनुकूल है और उसे कहीं पानी मिला भी या नहीं।
जर्मनी में काटलेनबुर्ग-लिंदाऊ के सौरमंडल अन्वेषण संबंधी माक्स प्लांक संस्थान के प्रो. हाराल्ड श्टाइनिंगर भी ऐसे ही एक वैज्ञानिक हैं। वे एक ऐसे मिशन के मुख्य वैज्ञानिक हैं, जिस के अधीन मंगल ग्रह की जमीन को जाँचने-परखने के लिए वहाँ घूमफिर करमिट्टी के नमूने लेने वाले दो उपकरणों के साथ एक अन्वेषण यान भेजा जाना है। इस मिशन को ‘एक्सोमार्स’ नाम दिया गया है।
प्रो. श्टाइनिंगर का कहना है, ‘वहाँ हरे रंग के आदमियों के होने की उम्मीद वैसे भी कोई नहीं कर रहा है। बहुत हुआ, तो बैक्टीरिया जैसे सूक्ष्म जीवाणु मिल सकते हैं।’
2018 में प्रक्षेपण : पैसे की कमी के कारण एक्सोमार्स के प्रक्षेपण को कई बार टाला जा चुका है। इस समय उसे 2018 में भेजने की बात चल रही है। एक्सोमार्स अपने साथ विभिन्न उपकरणों से भरे दो रोवर यानी विचरण वाहन भी ले जाएगा- हुम्बोल्ट और पास्त्यौअर।
हाराल्ड श्टाइनिंगर की टीम जो उपकरण बना रही है, उसका नाम है- ‘मोमा’ मार्सन ऑर्गैनिक मॉलेक्यूल्स एनेलाइजर। यह एक गैस क्रोमैटोग्राफ मास स्पेक्ट्रोमीटर है, जो एक लेजर मास स्पेक्ट्रोमीटर से जुड़ा है। उसे मालूम करना होगा कि मंगल ग्रह की मिट्टीमें किस किस तरह के पदार्थ मिले हुए हैं।’
मिट्टी की जाँच से मिलेगा पानी का सुराग :
मोमा इसे करेगा कैसे? प्रो. श्टाइनिंगर बताते हैं, ‘मिट्टी के नमूने लिए जाएँगे। उन्हें गरम किया जाएगा। गरम करने पर जो कुछ भाप या गैस बन जाएगा, वह गैस क्रोमैटोग्राफ में जाएगा। वहाँ उसे उन पदार्थों के अनुसार छाँटा जाएगा, जो उसमें मिले होंगे। मिट्टी के नमूनों में यदि सौ अलग-अलग पदार्थ होंगे, तो गैस क्रोमैटोग्राफ से भी सौ अलग-अलग पदार्थ बाहर आएँगे। तब मास स्पेक्ट्रोमीटर उन्हें एक-एक कर देखेगा। इस तरह गैसीय पदार्थों की संरचना का पता चलेगा। लेजर रिजोर्ब्शन स्पेक्ट्रोमीटर मिट्टी के नमूनों पर लेजर किरणों की इस तरह बौछार करेगा कि बड़े आकार के अणु गैस बन कर मिट्टी से अलग हो जाएँगे और उन की अलग से पहचान हो सकेगी।’मोमा स्वयं भी एक इंजीनियरिंग चुनौती है। उस का आकार तीस लीटर पानी के लिए आवश्यक जगह से अधिक नहीं होना चाहिए।
वे कहते हैं, ‘मंगल ग्रह की परिक्रमा कर चुकेयानों से उसकी ऊपरी सतह के कुछ ऐसे भी चित्र मिले हैं, जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि सतह के चार-पाँच सेंटीमीटर नीचे हमें कितना पानी मिल सकता है। लेकिन, यह कहना बहुत मुश्किल है कि इस पानी तक पहुँचना कितना सरलया कठिन है और वह खारा है या नहीं। इसलिए हमारा उपकरण जमीन में छेद कर पानी खोजेगा।’
दो मीटर की गहराई तक खुदाई : मोमा नाम का यह उपकरण पहली बार दो मीटर की गहराई तक की मंगल ग्रह की जमीन के नमूने लेगा। वह जो कुछ करेगा, उसका उद्देश्य बाद में भी एक्सोमार्स जैसी उड़ानों की तैयारी करने में और एक दिन वहाँ मनुष्य को भेजने में सहायक होना है।
अलग-अलग कक्षाओं में रह कर सूर्य की परिक्रमा कर रहे मंगल और पृथ्वी के बीच की दूरी हमेशा घटती-बढ़ती रहती है। इस का परिणाम यह होगा कि जो भी अंतरिक्ष यात्री कभी वहाँ जाएँगे, पृथ्वी पर वापसी से पहले उन्हें एक साल तक वहाँ रहना पड़ सकता है। वे इतने लंबे समय तक के लिए अपनी जरूरत की सारी चीजें पृथ्वी पर से ले कर नहीं जा सकते। अतः वैज्ञानिकों को पता लगाना है कि ऐसे कौन से संसाधन मंगल ग्रह पर ही मिल जाएँगे, जिनसे अंतरिक्ष यात्रियों का काम चल सकता है। यह भी देखना होगा उन संसाधनों को कैसे पाया और इस्तेमाल करने लायक बनाया जा सकता है। इस बारे में काफी अनिश्चय है।
जैसा कि प्रो.श्टाइनिंगर बताते हैं, ‘ऐसी दो उड़ानें पहले भी हो चुकी हैं जिन्होंने मंगल ग्रह पर कार्बनिक सामग्री का पता लगाने का प्रयास किया है, लेकिन केवल 10 सेंटीमीटर की गहराई तक ही। उन्हें कुछ नहीं मिला। ऐसी सामग्रियों की भी निश्चित रूप से जरूरत पड़ेगी, जिन का रिहायशी निर्माण सामग्री के तौर पर उपयोग हो सके। हो सकता है कि वहाँ सुरंगे खोदनी पड़ें, घर बनाने के लिए वहाँ की मिट्टी को जला कर ईंटें बनानी पड़ें। लेकिन सबसे जरूरी होगा पानी, क्योंकि मंगल ग्रह पर जाने वाले अंतरिक्ष यात्रियों को साल भर में जितना पानी चाहिए, उतना पानी पृथ्वी पर से नहीं ले जाया जा सकता। ऑक्सीजन पाना भी आसान नहीं होगा। उसे पानी के विद्युत-विश्लेषण से पैदा करना पड़ेगा। ऑक्सीजन और पानी, इन दोनों की सबसे पहले जरूरत पड़ेगी।’
इस का मतलब है कि एक्सोमार्स को मंगल ग्रह पर मुख्य रूप से पानी ढूँढना है, जो शायद वहाँ की चट्टानी जमीन में छिपा हुआ है। हाराल्ड श्टाइनिंगर और उन के सहयोगियों को 2018 तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी, क्योंकि उससे पहले उनकी मशीन मंगल ग्रह पर नहीं पहुँचेगी। इस के बाद ही पता चल पाएगा कि मोमा मंगल ग्रह की परिस्थितियों में काम करने के कितना अनुकूल है और उसे कहीं पानी मिला भी या नहीं।
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